सेक्स के कारण इंसान बन रहा है हैवान

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सेक्स सिर्फ जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति भर था। समूह का कोई भी पुरुष किसी भी स्त्री के साथ यौन संबंध कायम कर लेता था। किसी के साथ संबंध बनाने पर कोई रोक-टोक नहीं थी। यह अलग बात है कि शारीरिक रूप से ताकतवर लोग ही मनचाही औरतों के साथ संबंध बना पाते थे, वहीं कमजोर औरतों को हासिल कर पाने में असफल हो जाते थे।
 मनुष्य के यौन व्यवहार में एक से एक विचित्रताएं मिलती हैं। आदिम युग में मनुष्य पशुओं की तरह स्वच्छंद एवं उन्मुक्त संभोग करता था। उस ज़माने में न तो परिवार था और न ही सेक्स को लेकर किसी प्रकार की नैतिक अवधारणा का विकास हो पाया था।
मानव मन सेक्स के संबंध में बहुत ही कल्पनाशील होता है। उसकी कल्पनाएं एक से बढ़ कर एक और अजीबोगरीब होती हैं, पर वह उन्हें व्यवहारिक रूप नहीं देता, क्योंकि उस पर सामाजिक नैतिकता का बंधन होता है।
 सभ्यता के विकास के साथ यौन शुचिता और सेक्स व्यवहार के संबंध में नैतिक मानदंड विकसित हुए। पर सभ्यता के विकास के साथ ही, मनुष्य के सेक्स व्यवहार में कई तरह की विकृतियां भी सामने आने लगी। देखा जाये तो पहले जो स्वाभाविक था, सांस्कृतिक विकास के क्रम में वह अस्वाभाविक हो गया।
जहां यह बंधन ढीला होता है अथवा व्यक्ति को अपनी गोपनीय सेक्स कल्पनाओं-फैंटेसी को पूरा करने का मौका मिलता है, वह सामान्य सेक्स व्यवहार से हट कर विकृत सेक्स व्यवहार का प्रदर्शन करने लगता है।
कई देशों के ग्रामीण इलाकों में अभी भी ऐसी परंपरा है कि नवविवाहित जोड़ा जिस रात सुहाग रात मनाता है तो घर की औरतें जो दूल्हे की भाभी, चाची आदि होती हैं, वे किसी न किसी तरह उन्हें संभोगरत देखने की कोशिश करती हैं।
घर की दाइयां भी इसमें शामिल होती हैं। कई विवाहिताएं, जिनकी सुहाग रात मायके में ही मनाए जाने की प्रथा है, वहां दुल्हन की बड़ी-छोटी बहनें, चाचियां और दाइयां किसी न किसी तरह उन्हें संभोगरत देखने का प्रयास करती हैं, ताकि यह पता लगा सकें कि लड़का सफलतापूर्वक संभोग कर पा रहा या नहीं। 
कई स्त्री-पुरुषों को चोरी-छुपे दूसरों के संभोगरत देखने की तीव्र लालसा होती है और सिर्फ यह देख कर ही उन्हें यौन संतुष्टि मिल जाती है। यह सेक्शुअल परवर्ज़न का एक रूप है।
पिगमैलियनिज्म
पिगमैलियन एक मूर्तिकार था, जिसे अपनी बनाई हुई मूर्ति से ही प्यार हो गया था। यह प्यार कामाकर्षण में बदल गया। कई लोगों को नग्न मूर्तियां देख कर तीव्र कामोत्तेजना होती है।
यह स्वाभाविक है, पर यह सेक्शुअल परवर्ज़न का रूप तब ले लेती है, जब व्यक्ति मूर्ति के साथ ही कामचेष्टा कर पूर्ण संतुष्टि का अनुभव करता है। नग्न चित्रों और संभोग दृश्यों में व्यक्ति की दिलचस्पी स्वाभाविक है, लेकिन जब यह प्रबल काम आवेग का रूप ले ले तो इसे विकृति माना गया है।

पिगमैलियनिज्म को सेक्शुअल परवर्ज़न का गंभीर रूप माना गया है। आम तौर पर यह प्रवृत्ति पुरुषों में ही पाई जाती है, पर महान चिकित्सक और यौन मनोवैज्ञानिक हिर्शफिल्ड ने उच्च वर्ग की एक ऐसा महिला का उल्लेख किया है, जिसने एक म्यूज़ियम में क्लासिक नग्न मूर्तियों के यौनांगों से अंजीर के पत्ते हटा दिए और उसे बेतहाशा चूमने लगी।
इसे मूर्ति के साथ मुख-मैथुन का एक रूप कहा जा सकता है। इस रूप में वास्तव में यह गंभीर यौन विकृति है। कई यौन चिकित्सकों का मानना है कि इस विकृति से पीड़ित व्यक्ति के लिए चिकित्सकीय सहायता बहुत जरूरी है।

पीपींग
पीपींग का मतलब है,  चोरी-छुपे संभोगरत जोड़ों को देखना और इसी से यौन संतुष्टि प्राप्त करना। संभोगरत अवस्था में किसी को देखने से रोमांच की स्वाभाविक अनुभूति होती है।
पीपींग एक आमफहम प्रवृत्ति है। एक हद तक इसे स्वभाविक भी कहा गया है। हेवलॉक एलिस ने अपनी पुस्तक 'साइकोलॉजी ऑफ सेक्स' में लिखा है कि बड़े-बड़े सम्मानीय लोग अपनी जवानी के दिनों में दूसरी औरतों को सेक्स करते हुए देखने के लिए उनके कमरों में ताकाझांकी किया करते थे।
यही नहीं, सम्मानित मानी जाने वाली औरतें भी पर-पुरुषों के शयन कक्षों में झांकने की कोशिश किया करती थीं।
एर्गोफेली
यह एक ऐसी यौन विकृति है, जिसका संबंध अत्यंत चुस्त कपड़ों में यौनांगों के उभार दिखाई पड़ने से है। बहुत ही चुस्त यानी स्किन टाइट पोशाक में औरतों के नितंब पूरी तरह उभरे हुए दिखाई देते हैं, वहीं योनि का उभार भी स्पष्ट दिखाई पड़ता है।
यह देख पुरुषों का कामोत्तेजित होना स्वाभाविक है। पर यह विकृति का रूप तब ले लेता है, जब वास्तविक संभोग करने के बाद भी बिना चुस्त कपड़ों में स्त्री के यौनांगों का उभार देखे या उनकी कल्पना कर मानसिक संभोग किए बिना, जिसकी परिणति हस्तमैथुन में होती है, व्यक्ति को पूर्ण यौन संतुष्टि नहीं मिलती है।
सर्कस में काम करने वाली लड़कियां ऐसी चुस्त पोशाकों में होती हैं कि उनके नितंब, स्तन, योनिप्रदेश ढके होने के बावजूद पूरी तरह प्रदर्शित होते हैं।
इसी प्रकार, अश्लील नृत्यों में नृत्यंगनाओं की पोशाक चुस्त और पारदर्शी हुआ करती है। इनमें उनके यौनांगों के उभार साफ दिखाई पड़ते हैं और नृत्य-भंगिमाएं भी कामुक होती हैं। इन्हें देख कर पुरुष क्या, स्त्रियां भी कामोत्तेजित हो जाती हैं। 
इसी प्रकार, सिर्फ छोटी-सी लंगोटी कसे बॉडी-बिल्डरों को देख कर भी औरतें एर्गोफेली की शिकार होती हैं। लंगोटी में पुरुष के यौनांग का स्पष्ट आभास होता है, जिसकी मानसिक छाप औरतों पर ऐसी पड़ती है कि वास्तविक संभोग से उन्हें परितृप्ति नहीं मिल पाती।
इस काम विकृति से पीड़ित औरतें जब तक काल्पनिक संभोग यानी हस्तमैथुन नहीं कर लेतीं, उन्हें चरम सुख प्राप्त नहीं होता। पुराने ज़माने में ग्रामीण अभिजातों के यहां काम करने वाले दास सिर्फ कसी हुई लंगोटी पहनते थे। कई मौकों पर परिवार की औरतों के सामने उऩ्हें जाना पड़ता था।
उन्हें देख कर कई युवा और प्रौढ़ महिलाएं आकर्षित हो जाती थीं और मौका पाकर उनके साथ संभोग करती थीं। प्राचीन रोम में दासों के साथ अभिजात वर्ग की महिलाओं के साथ यौन संबंध अक्सर कायम होते थे। 
सेक्स विद एनिमल्स
जानवरों को सेक्स करते देखना लड़के और लड़कियों के लिए समान रूप से रहस्यमय और कामोत्तेजक होता है। ऐसा पाया गया है कि लड़कों की अपेक्षा लड़कियों को ऐसे दृश्य देखने से अधिक कामोत्तेजना होती है।
16-17वीं शताब्दी में इंग्लैंड और फ्रांस में राज परिवारों और अभिजात वर्ग की महिलाएं खुलेआम ऐसे दृश्यों का मजा लेती थीं। प्राचीन रोम में खास कर अभिजात वर्ग के पुरुष और महिलाओं के मनोरंजन के लिए जानवरों के संभोग के आयोजन करवाए जाते थे।
हॉर्वड फॉस्ट के उपन्यास 'स्पार्टाकस' में इसका वर्णन मिलता है। यूरोप में जानवरों के साथ व्यभिचार आम पाया गया। आम तौर पर देहाती क्षेत्रों में इसका काफी प्रचलन था। किसान औरत की अनुपलब्धता की स्थिति में अक्सर जानवरों के साथ संभोग किया करते थे और उनकी दृष्टि में यह कोई असामान्य बात नहीं थी।
एक जर्मन किसान ने इस मामने में पकड़े जाने पर मजिस्ट्रेट से कहा था कि उसकी बीवी लंबे समय से बाहर गई हुई थी, उससे रहा नहीं गया और उसने अपनी सुअरनी के साथ ही सेक्स कर लिया।
सेक्स के लिए जानवरों के इस्तेमाल के काफी विवरण मिलते हैं। हेवलॉक एलिस ने लिखा है कि शायद ही कोई ऐसा घरेलू जानवर होगा जिसके साथ औरतों और मर्दों ने सेक्स नहीं किया हो।
घोड़ियों. गदहियों, गायों, बकरियों, भेड़ों और सुअरनियों के साथ खूब व्यभिचार किए गए। चीन में बत्तखों और हंसनियों के साथ सेक्स करने के विवरण मिले हैं। मध्य युग में यह कुटैव इतना ज्यादा फैला हुआ था कि 15वीं-16वीं सदी के उपदेशकों के प्रवचनों में इसका जिक्र बार-बार आता है।
मध्य युग में यूरोप के कई देशों में, विशेषकर फ्रांस में पशुओं के साथ संभोग करते पकड़े जाने पर पशु और उसके साथ ऐसा करने वालों को जिंदा जला दिया जाता था। फ्रांस के ही तुलूं में एक औरत को कुत्ते के साथ संभोग करने के कारण जिंदा जला दिया गया था।
अभी भी. कभी-कभार पशुओं के साथ मैथुन करने की खबरें प्रकाश में आ ही जाती हैं। स्पष्ट रूप से इसे एक सेक्शुअल परवर्ज़न माना गया है।
फ्रॉटेज
यह स्पर्श पर आधारित काम विकृति है। यह विकृति पुरुषों में ज्यादा पाई जाती है। इसमें व्यक्ति भीड़-भाड़ वाली जगहों पर औरतों की देह से अपना शरीर भिड़ाने की कोशिश करता है और उनके यौनांगों का स्पर्श करता है। इस दौरान वह यह दिखाने की कोशिश करता है कि वह इसके प्रति सर्वथा अनजान है। खास बात यह है कि इस काम विकृति से पीड़ित व्यक्ति एकदम अपरिचित औरतों के साथ शारीरिक रगड़ करने की चेष्टा करता है।
कई पुरुष भीड़-भीड़ वाली जगहों पर औरतों के नितंबों पर हाथ रख देते हैं और ऐसा करके सेक्स के आनंद की अनुभूति करते हैं। एक सर्वेक्षण के दौरान हेवलॉक एलिस को कई औरतों ने बताया था कि थिएटरों और गिरजाघरों में भीड़ के दौरान उन्हें अक्सर ऐसे अनुभव हुए हैं कि कोई व्यक्ति जान-बूझकर उनसे शरीर भिड़ा रहा है।
यह काम विकृति आमफहम है। कई प्रतिष्ठित लोग भी मौका मिलते ही औरतों के शरीर का स्पर्श करने या उनसे चिपकने की कोशिश करते पाए गए हैं। वैसे, यौन मनोवैज्ञानिकों ने इसे कोई गंभीर काम विकृति नहीं माना है।
एग्जीबिशनिज्म
एग्जीबिशनिज्म यानी यौनांगों का किसी को लक्ष्य कर प्रदर्शन सेक्शुअल परवर्ज़न का एक रूप है। यह प्रवृत्ति समान रूप से औरतों-मर्दों में पाई गई है। लासेग ने सबसे पहले सन् 1877 में इस यौन विकृति का नामकरण किया था।
इस विकृति से ग्रस्त लोगों को अपने यौनांगों का प्रदर्शन कर ही काम संतुष्टि मिल जाती है। बहुत से पुरुष उन औरतों को लक्ष्य कर लिंग दिखाते हैं, जिन्हें वे जानते तक नहीं। इसी प्रकार, औरतें भी स्तन, योनि और नितंबों का प्रदर्शन कर यौन संतुष्टि प्राप्त करती देखी गई हैं।
प्रसिद्ध दार्शनिक रूसो ने यह स्वीकार किया है कि जब वह युवा था तो उसने एक या दो बार अपना लिंग लड़कियों को दिखाया था। हेवलॉक एलिस लिखते हैं कि एक बार जब वे ट्रेन से कहीं जा रहे थे तो एक जवान औरत जो रेलवे लाइन के किनारे नाले में नहा रही थी, ट्रेन गुजरते समय अपने नितंबों के उघाड़ कर खड़ी हो गई। 

चिकित्सक और य़ौन मनोवैज्ञानिक हिर्शफिल्ड ने लिखा है कि प्राय: पुरुष कम उम्र की लड़कियों के सामने ही यौनांगों का प्रदर्शन करते हैं।
कई बार यह यौन संबंधों के लिए आमंत्रण के रूप में होता है। लड़कियों के सामने लिंग का प्रदर्शन करने वाला व्यक्ति उनकी प्रतिक्रिया को भांपना चाहता है और इससे ही यौन सुख का अनुभव करता है। यह प्रतिक्रिया मुख्यत: तीन रूपों में होती है।
लड़की भौंचक रह जाती है, डर जाती है और भाग जाती है। वह नाराज हो जाती है और शोर मचाने की धमकी देती है। लड़की ढीठ की तरह देखती रहती है, मुस्कुराती है, हंसती है और आनंदित होती है। मनोवैज्ञानिकों ने पाया है कि इस अंतिम प्रतिक्रिया से ही यौनांग प्रदर्शित करने वाले को सर्वाधिक संतुष्टि मिलती है।
अधिकांश मामलों में इस यौन विकृति से पीड़ित व्यक्ति लिंग प्रदर्शित करते हुए अपनी सुरक्षा के प्रति सचेत रहता है, पर जब यह विकृति चरम पर पहुंच जाती है तो उसका खुद पर कोई नियंत्रण नहीं रह जाता है। वह सार्वजनिक स्थानों पर भी बिना किसी की परवाह किए यौनांग-प्रदर्शन करता रहता है। इस अवस्था में चिकित्सा की निहायत ही जरूरत होती है।
लोलिता सिंड्रोम
ऐसा अक्सर पाया गया है कि कुछ अधेड़ व्यक्ति अल्प वयस्क बालिकाओं और किशोरियों से यौन संबंध बनाने में रुचि लेते हैं। यह प्रवृत्ति वृद्ध लोगों में भी देखी गई है। ऐसे लोग किशोरियों के साथ सेक्स करने के हर जतन करते हैं। उन्हें फुसलाते हैं, बहलाते हैं और जब इस तरह सफलता नहीं मिलती तो कई बार बलात्कार पर भी उतारू हो जाते हैं।
इतिहास और समकालीन समाज में ऐसे यौन संबंधओं के कई उदाहरण मिलते हैं।
नोबल पुरस्कार प्राप्त विश्वविख्यात उपन्यासकार व्लादीमीर नाबाकोब के उपन्यास 'लोलिता' का मुख्य पात्र इसी प्रवृत्ति से ग्रस्त है। वह कम उम्र लड़कियों से सेक्स संबंध बनाने के लिए किसी भी हद तक चला जाता है।
वह एक विधवा औरत से सिर्फ इसलिए शादी करता है, ताकि उसकी मासूम बेटी को हासिल कर सके। ऐसा करने में वो सफल भी होता है, पर इस संबंध का की परिणति बहुत ही ट्रैजिक होती है।

इस उपन्यास के प्रकाशित होने पर इसे अश्लील माना गया और इस पर बैन लग गया। सेक्स विकृतियों का अध्ययन करने वाले चिकित्सकों और मनोवैज्ञानिकों ने इस उपन्यास का बहुत ही महत्त्वपूर्ण माना और इसी के आधार पर इस सेक्स विकृति का नाम लोलिता सिंड्रोम रखा गया। अक्सर, कम उम्र बालिकाओं के प्रति अत्यधिक काम आकर्षण महसूस करने वाले लोग उच्च शिक्षित, कवि, कलाकार, विचारक आदि पाए गए हैं।
वो फैंटेसी की दुनिया में जीते हैं और अपने-आपको समाज एवं परिवार की नज़रों से बचाते हुए अल्पवयस्क बालिकाओं को अपने जाल में किसी शिकारी की तरह फांसते हैं। इस तरह के संबंध प्राय: परिवार एवं रिश्तेदारियों में फलते-फूलते पाए गेए हैं।
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