
यही नहीं, शहरी उपभोक्ता व्यय के सूचकांक में भी वह सातवें से नौवें स्थान पर पहुंच गया है। उसकी रफ्तार राष्ट्रीय औसत से भी कम रही है। सबसे अच्छा प्रदर्शन आंध्र प्रदेश का रहा है जो प्रतिमाह प्रतिव्यक्ति ग्रामीण और शहरी व्यय, दोनों मामलों में बारह साल पहले ग्यारहवें स्थान पर था, मगर पिछले वर्ष ग्रामीण व्यय में पांचवें स्थान पर और शहरी व्यय में छठे स्थान पर पहुंच गया। तमिलनाडु भी ग्रामीण उपभोक्ता खर्च में दो सीढ़ी ऊपर चढ़ा है, अलबत्ता शहरी व्यय में वह दूसरे से सातवें स्थान पर पहुंच गया है। ग्रामीण उपभोक्ता खर्च में वृद्धि के लिहाज से आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के साथ-साथ केरल, पंजाब और हरियाणा सबसे आगे हैं। शहरी व्यय में बढ़ोतरी की दृष्टि से सबसे अव्वल पांच राज्यों में हरियाणा, केरल, महाराष्ट्र, कर्नाटक और पंजाब शामिल हैं। पर ध्यान रहे यह आकलन वृद्धि दर का है, यानी किसी भी राज्य की पहले की अपनी स्थिति से तुलना पर आधारित है। अगर गुजरात का प्रदर्शन राष्ट्रीय औसत से भी कमतर है तो इसका मतलब यह नहीं कि वहां प्रतिव्यक्ति ग्रामीण या शहरी व्यय राष्ट्रीय औसत से कम है। लेकिन यह जरूर पता चलता है कि वहां प्रतिमाह के उपभोक्ता-व्यय में वृद्धि की गति अनेक राज्यों से कम रही है। क्या यही मोदी मॉडल का हासिल है? पिछले दिनों गरीबी में कमी के आंकड़े भी आए हैं। इसके मुताबिक अब देश की आबादी में बीपीएल का हिस्सा लगभग बाईस फीसद है। 2004-05 में गुजरात में बीपीएल आबादी लगभग साढ़े इकतीस फीसद थी और राजस्थान में लगभग साढ़े चौंतीस फीसद। अब गुजरात का आंकड़ा 16.6 फीसद का है और राजस्थान का 14.7 फीसद। यानी गुजरात की तुलना में राजस्थान ने बीपीएल आबादी का अनुपात कम करने में कहीं ज्यादा तेजी से कामयाबी हासिल की है। यों गरीबी रेखा यानी गरीबी के पैमाने को लेकर सवाल उठते रहे हैं। सर्वोच्च अ
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