
अपनी बेसिक डॉक्ट्रीन [बुनियादी युद्धनीति] में वायुसेना ने आक्रामक भूमिकाओं की जमकर पैरवी की है। वायुसेना ने 1965 और 1971 में पाकिस्तान के साथ युद्ध तथा 1962 में चीन के साथ लड़ाई में उसे आक्रामक भूमिका में न लगाए जाने का हवाला देते हुए कहा है कि नतीजे अपने आप में अंतर स्पष्ट कर देते हैं। वायुसेना ने मालदीव, नेपाल व ढाका के अपने विभिन्न अभियानों को निर्णायक करार दिया है। वहीं जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद की ओर इशारा करते हुए वायुसेना ने छद्म युद्ध स्थितियों से निपटने में बहुउद्देश्यीय लड़ाकू विमानों से आक्रामक हमले को भारतीय संदर्भ में विकल्प करार दिया है। वायुसेना के मुताबिक ऐसे हमले में प्रशिक्षण केंद्रों व आतंकी नेतृत्व निशाने पर होगा, जिसके लिए लड़ाकू विमानों व युद्धक हेलीकॉप्टरों की मदद ली जा सकती है। हालांकि वायुसेना प्रमुख एयरचीफ मार्शल एनएके ब्राउन द्वारा जारी इस नीति में यह स्पष्ट किया गया है कि ऐसे किसी भी अभियान के लिए राजनीतिक स्तर पर निर्णय जरूरी है। युद्ध नीति दस्तावेज के मुताबिक गैर-पारंपरिक संघर्ष में वायुसेना के उपयोग के लिए एकमात्र महत्वपूर्ण तत्व है राजनीतिक इच्छाशक्ति। वायुसेना ने श्रीलंका, अफगानिस्तान, पाकिस्तान समेत पड़ोसी मुल्कों में आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई में वायुसेना की आक्रामक भूमिका को कारगर बताया है।
भविष्य की जरूरतों का हवाला देते हुए वायुसेना ने कहा कि वह आसमान के साथ ही अंतरिक्ष में भी अपनी तैयारियों को मजबूत करने पर ध्यान देगी। वायुसेना की युद्धनीति के अनुसार आसमान और अंतरिक्ष के बीच का भेद सिमटता जा रहा है, ऐसे में वही देश दबदबा कायम रख सकेगा जो अतंरिक्ष तक अपनी ताकत का लोहा मनवा सके।
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