नई दिल्ली। घोर निराशा में याद रखो कि अमावस के बाद पूर्णिमा आएगी ही,
रात्रि के बाद प्रभात फिर उदय होगा। हम कहते कुछ और हैं और करते कुछ और ही
हैं। आदर्श और व्यवहार के बीच गहरी खाई रहती है। कहां मेरी कल्पनाओं और
आकांक्षाओं से उभरता मेरा चित्र और कहां मेरे नाम से पुकारा जानेवाला
मिट्टी का यह ढेर?
निर्णय किया था पांच बजे उठने का, तुरंत आलस्य ने धर दबाया इसलिए पांच के बदले सात बज गए। वचन दिया था कि अब गुस्सा नहीं करूंगा, परंतु जरा-सी बात का बुरा लगा और मेरे शोरगुल से सारा मुहल्ला गूंज उठा। रोज की तरह रात को पढ़ने तो बैठा, परंतु घर से बुरी खबर आने से मन चिंतित होकर दुख में डूब गया, और पढ़ने एक ओर रह गया।
नक्शे में रास्ता तो सीधा ही खींचा था, परंतु जीवन के जंगल में से होकर जाने से वह टेढ़ा-मेढ़ा हो गया। और रास्ता जितना टेढ़ा-मेढ़ा, उसे बनाने का खर्च उतना ही अधिक और उस पर चलने की रफ्तार भी कम। जीवन-पथ के निर्माण में ऐसी भूल नहीं निभती!
हममें सिर्फ विचार-तंत्र और निर्णय तंत्र होते तो काम सरल होता। मन दिशा बताता और दिल चलने की आज्ञा देता। मन और दिल के बीच भावनाओं के बहुत से सूक्ष्म तार भी फैले हुए हैं। उनके स्पंदन से मन की दृष्टि बदल जाती है और दिल के निर्णय फिर जाते हैं।
भय और चिंता, क्रोध और क्षोभ, संकोच और निराशा, ये भाव मनुष्य के मन और हृदय में घूमते ही रहते हैं। और अगर मनुष्य सावधान न रहे, तो वे अपना निर्धारित कार्य उससे करा लेते हैं। भय उसे भगा देगा, चिंता उसका जी खा जाएगी, क्रोध उसे पशु बना देगा, निराश आर उदासीनता उसकी शक्ति लूट लेंगी। फलत: निर्धारित रास्ते पर वह जा सकेगा नहीं और निर्धारित काम पूरा कर पाएगा नहीं। भावनातंत्र बराबर काम न करे, तो विचार और निर्णयतंत्र की सारी व्यवस्था भी बिगड़कर ही रहती है।
अर्जुन जैसे योद्धा के मुंह से भी निराशा के शब्द निकलते हैं, मैं नहीं लड़ूंगा। हृदय के सहयोग के बिना गांडीव जैसा धनुष भी भूमि पर निकम्मा पड़ा रहेगा। भावनाओं के सहयोग बिना, मनुष्य की तमाम शक्तियां व्यर्थ हो जाएंगी, व्यक्तित्व-निर्माण का कार्य अवश्य हो जाएगा।
भावनाएं हों या प्रबल हों, यह अच्छा है। घोड़ा पानीदार होगा, तभी दौड़ने-कूदने में आगे रहेगा। भावनाएं तीव्र होंगी, तभी जीवन-पथ पर दौड़ने और विघनें की बाढ़ लांघने में वे सहायक होंगी। भावनाशून्य मनुष्य नहीं; या तो राक्षस होगा, अथवा पत्थर की मूर्ति।
अशुभ समाचार मिलने से आंखों में आंसू आ जाएं, अन्याय होने से हृदय में गुस्सा भर जाए, परीक्षा समीप आ जाने से मन पर चिंता का बोझ सवार हो जाए, इसमें कुछ हर्ज नहीं। यह तो मनुष्य होने का अहसास-भर है। लेकिन देखना यह है कि चिंता के वश होकर क्या मैं अध्ययन छोड़ देता हूं या चिंता को गंभीरता और जिम्मेदारी के भाव में परिवर्तित कर मैं अधिक सावधानी के साथ पढ़ने लगता हूं? हृदय में क्रोध उत्पन्न होने पर उसके बहाव में विवेक-हीन होकर मैं धक्का-मुक्की करने लगता हूं या क्रोध के आवेश का, अन्याय का न्याय-पूर्वक सामना करने में उपयोग करता हूं?
प्रपात के रूप में पड़ते हुए नदी के पानी को कगार की शिलाओं के साथ टकराने देकर झाग और भाप में परिणत होने देते हैं, अथवा बांध-नहर आदि बांधकर हम बिजली का उत्पादन करते हैं और खेती को उसका पूरा लाभ पहुंचाते हैं? सारा सवाल भावना पर नियंत्रण का है। उसके सुलझाने के लिए हृदय के इंजिनियर बनकर भावना-तंत्र पर हमें असाधारण बांध बांधना सीखना पड़ेगा।
भय और चिंता अंधी वृत्तियां हैं। भूत की बात अमावस के अंधेरे में ही निभ सकती है। दिन-दहाड़े मैदान में फिरने निकले तो उसकी पोल खुल जाती है। अत: चिंता-निवारण के लिए जिस कारण वह हो, उस पर बुद्धि का प्रकाश डालना चाहिए। जिसका भय सताता है, वह ऐसी है क्या चीज, यह देखना चाहिए।
चीते के साथ संघर्ष करनेवाले एक बहादुर ग्वाले को अस्पताल में इंजेक्शन लगाए जाने का निश्चय होने पर जोर-जोर से रोते हुए मैंने देखा है। युद्ध के मोर्चे पर जीवन की तनिक भी परवा न करनेवाले सैनिकों को, सामान्य शल्य-क्रिया से बचने के लिए अस्पताल से चुपके से भाग जाने की घटनाएं मैंने सुनी हैं। चीते के नाखूनों की अपेक्षा डॉक्टर की सुई क्या अधिक भयंकर होती है? तोप के प्रहार झेलने की अपेक्षा शीशी सूंघना क्या ज्यादा बहादुरी का काम है? शांति से विचार करने पर चिंता और भय का भूत बहुत बार आपसे आ भाग जाएगा।
बहुत बार; परंतु हमेशा नहीं।
किसी समय-जिसका परिणाम पूर्ण रूप से हमारे हाथ में न हो, ऐसी अनिश्चित घटना निकट भविष्य में होने वाली दीखती हो, तब विचार करने पर भी मन को सांत्वना न मिल सकेगी। परिणाम अनिश्चित होने से आशा और निराशा के बीच मन झूले खाएगा। पहले धीरे-धीरे से, परंतु फिर झूले पर झूलते हुए जैसे वेग में वृद्धि होती है वैसे-वैसे मन भावी घटना के तटस्थ निरीक्षण में सर्वथा असमर्थ हो जाएगा।
झूला जरा धीमा करो।
मन को समझाओ कि यह घटना अमु अंश में अनिश्चित जरूर है : परीक्षा की खासी अच्छी तरह तैयारी की है, परन्तु परिणाम क्या आएगा, यह कहा नहीं जा सकता, तो भी अभी से उसकी चिंता करने से नंबर कुछ अधिक आ जानेवाले नहीं। अभी से चिंता करने से कल्पित दु:ख से दुखी होने के सिवा कोई लाभ नहीं होगा।
अनुत्तीर्ण होंगे, तो उसका शोक तब करेंगे।
मनुष्य जीवित हो, तो उसकी चिता क्या कभी जलाई जाती है?
और फिर, वास्तविक दुख की अपेक्षा कल्पित दुख बड़ा होता है और देर तक चलता है। परीक्षा तो तीन घंटों में समाप्त हो जाएंगी, तो उसकी चिंता आठ महीने चलने देंगे?
जेल की दीवारें ऊंची हैं। एक दुखी लेखक लिखता है, परंतु उनकी ऊंचाई की अपेक्षा परछाई अधिक लंबी है।
भावनाओं का संचार हो, और मन के कोने-कोने में वह फैल जाए, शरीर की नस-नस में उसके अमृत या विष का प्रभाव पहुंच जाय, तब उसे मनोभाव करते हैं। वह अनुकूल हो, तो मानो पवन से हांकी जाती नाव! पाल फैलाओं, बस इतनी ही देर! परंतु अगर मनोभाव बिगड़े, तो वह मनुष्य को घोर निराशा में पटक देता है। ऐसा हो तब क्या करें? सारी दुनिया से रुष्ट होकर घर के एक कोने में बैठ जाएं?
नहीं, मनोभाव का व्याकरण भी होता है। अगर उसे सीख लोगे, तो सभी भावनाओं के बीच तुम्हारे जीवन की पंक्तियां सीधी लीखी जा सकेंगी।
प्रथम तो याद रखो कि अमावस के बाद पूर्णिमा आएगी ही। भाटे के बाद ज्वार जरूर चढ़ेगा। रात्रि के बाद प्रभात का फिर उदय होगा। यही प्रकृति का चक्र है, जीवन का यह अपरिहार्य नियम है।
निराशा का अंधकार हो, तब याद करो कि आशा का सूर्य उदित होगा ही और उत्साह खूब उमड़ता हो, तब याद रखो कि उदासीनता की छाया भी फिर छाएगी। तुम्हारे भावों का तांडव-नृत्य, इन विचारों से कुछ शांत हो सकेगा।
फिर, मन की स्थिति बिगड़ी तो भले ही बिगड़ी, परंतु बाहर इसकी खबर पड़ने न दो। दिल में चाहे जो भावनाएं हों, परंतु हाथ पैर निर्धारित नियमों के अनुसार चलाओ। युद्ध-क्षेत्र में, जवान के हृदय में चाहें अनेक भाव उठें, तो भी वह बंदूक चलाता ही जाता है। परीक्षा भवन में विद्यार्थी के मन में शंका-कुशंकाएं उठें, तो भी वह कलम चलाता ही जाता है। चलने लगी, तो चलने की उमंग स्फुरित होगी।
अंत में हिम्मत हो तो विकृत भावनाओं का हमला होने पर, आगे बढ़कर उनका मुकाबला करो। आज दो घंटे पढ़ना निश्चित किया था। फिर मनोभाव बिगड़ने पर आज का पढ़ने का कार्यक्रम, अनिवार्य परिस्थितियों के कारण स्थगित करने का मन हो गया।
ऐसी भावना होने पर यों सोचो : दो घंटे पढ़ना था, तो दो घंटे तो पढूंगा ही, क्योंकि जो अंधकार में रास्ता बदले और जो अशांति में निर्णय बदले वह मुसाफिर का धर्म भूलता है; परंतु पढ़ना स्थगित रखने की बात मन में आई, इसलिए अब दो घंटे से अधिक तीसरे घंटे भी न पढूं, तो मैं मर्द नहीं। और फिर भावनाएं ठीक-ठीकाने आने लग जाएंगी।
युद्ध का मंत्र है : बचाव की अपेक्षा आक्रमण अधिक अच्छा।
(लेखक स्पेन मूल के गुजराती साहित्यकार हैं। सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित उनकी पुस्तक सच्चे इंसान बनो से साभार)
निर्णय किया था पांच बजे उठने का, तुरंत आलस्य ने धर दबाया इसलिए पांच के बदले सात बज गए। वचन दिया था कि अब गुस्सा नहीं करूंगा, परंतु जरा-सी बात का बुरा लगा और मेरे शोरगुल से सारा मुहल्ला गूंज उठा। रोज की तरह रात को पढ़ने तो बैठा, परंतु घर से बुरी खबर आने से मन चिंतित होकर दुख में डूब गया, और पढ़ने एक ओर रह गया।
नक्शे में रास्ता तो सीधा ही खींचा था, परंतु जीवन के जंगल में से होकर जाने से वह टेढ़ा-मेढ़ा हो गया। और रास्ता जितना टेढ़ा-मेढ़ा, उसे बनाने का खर्च उतना ही अधिक और उस पर चलने की रफ्तार भी कम। जीवन-पथ के निर्माण में ऐसी भूल नहीं निभती!
हममें सिर्फ विचार-तंत्र और निर्णय तंत्र होते तो काम सरल होता। मन दिशा बताता और दिल चलने की आज्ञा देता। मन और दिल के बीच भावनाओं के बहुत से सूक्ष्म तार भी फैले हुए हैं। उनके स्पंदन से मन की दृष्टि बदल जाती है और दिल के निर्णय फिर जाते हैं।
भय और चिंता, क्रोध और क्षोभ, संकोच और निराशा, ये भाव मनुष्य के मन और हृदय में घूमते ही रहते हैं। और अगर मनुष्य सावधान न रहे, तो वे अपना निर्धारित कार्य उससे करा लेते हैं। भय उसे भगा देगा, चिंता उसका जी खा जाएगी, क्रोध उसे पशु बना देगा, निराश आर उदासीनता उसकी शक्ति लूट लेंगी। फलत: निर्धारित रास्ते पर वह जा सकेगा नहीं और निर्धारित काम पूरा कर पाएगा नहीं। भावनातंत्र बराबर काम न करे, तो विचार और निर्णयतंत्र की सारी व्यवस्था भी बिगड़कर ही रहती है।
अर्जुन जैसे योद्धा के मुंह से भी निराशा के शब्द निकलते हैं, मैं नहीं लड़ूंगा। हृदय के सहयोग के बिना गांडीव जैसा धनुष भी भूमि पर निकम्मा पड़ा रहेगा। भावनाओं के सहयोग बिना, मनुष्य की तमाम शक्तियां व्यर्थ हो जाएंगी, व्यक्तित्व-निर्माण का कार्य अवश्य हो जाएगा।
भावनाएं हों या प्रबल हों, यह अच्छा है। घोड़ा पानीदार होगा, तभी दौड़ने-कूदने में आगे रहेगा। भावनाएं तीव्र होंगी, तभी जीवन-पथ पर दौड़ने और विघनें की बाढ़ लांघने में वे सहायक होंगी। भावनाशून्य मनुष्य नहीं; या तो राक्षस होगा, अथवा पत्थर की मूर्ति।
अशुभ समाचार मिलने से आंखों में आंसू आ जाएं, अन्याय होने से हृदय में गुस्सा भर जाए, परीक्षा समीप आ जाने से मन पर चिंता का बोझ सवार हो जाए, इसमें कुछ हर्ज नहीं। यह तो मनुष्य होने का अहसास-भर है। लेकिन देखना यह है कि चिंता के वश होकर क्या मैं अध्ययन छोड़ देता हूं या चिंता को गंभीरता और जिम्मेदारी के भाव में परिवर्तित कर मैं अधिक सावधानी के साथ पढ़ने लगता हूं? हृदय में क्रोध उत्पन्न होने पर उसके बहाव में विवेक-हीन होकर मैं धक्का-मुक्की करने लगता हूं या क्रोध के आवेश का, अन्याय का न्याय-पूर्वक सामना करने में उपयोग करता हूं?
प्रपात के रूप में पड़ते हुए नदी के पानी को कगार की शिलाओं के साथ टकराने देकर झाग और भाप में परिणत होने देते हैं, अथवा बांध-नहर आदि बांधकर हम बिजली का उत्पादन करते हैं और खेती को उसका पूरा लाभ पहुंचाते हैं? सारा सवाल भावना पर नियंत्रण का है। उसके सुलझाने के लिए हृदय के इंजिनियर बनकर भावना-तंत्र पर हमें असाधारण बांध बांधना सीखना पड़ेगा।
भय और चिंता अंधी वृत्तियां हैं। भूत की बात अमावस के अंधेरे में ही निभ सकती है। दिन-दहाड़े मैदान में फिरने निकले तो उसकी पोल खुल जाती है। अत: चिंता-निवारण के लिए जिस कारण वह हो, उस पर बुद्धि का प्रकाश डालना चाहिए। जिसका भय सताता है, वह ऐसी है क्या चीज, यह देखना चाहिए।
चीते के साथ संघर्ष करनेवाले एक बहादुर ग्वाले को अस्पताल में इंजेक्शन लगाए जाने का निश्चय होने पर जोर-जोर से रोते हुए मैंने देखा है। युद्ध के मोर्चे पर जीवन की तनिक भी परवा न करनेवाले सैनिकों को, सामान्य शल्य-क्रिया से बचने के लिए अस्पताल से चुपके से भाग जाने की घटनाएं मैंने सुनी हैं। चीते के नाखूनों की अपेक्षा डॉक्टर की सुई क्या अधिक भयंकर होती है? तोप के प्रहार झेलने की अपेक्षा शीशी सूंघना क्या ज्यादा बहादुरी का काम है? शांति से विचार करने पर चिंता और भय का भूत बहुत बार आपसे आ भाग जाएगा।
बहुत बार; परंतु हमेशा नहीं।
किसी समय-जिसका परिणाम पूर्ण रूप से हमारे हाथ में न हो, ऐसी अनिश्चित घटना निकट भविष्य में होने वाली दीखती हो, तब विचार करने पर भी मन को सांत्वना न मिल सकेगी। परिणाम अनिश्चित होने से आशा और निराशा के बीच मन झूले खाएगा। पहले धीरे-धीरे से, परंतु फिर झूले पर झूलते हुए जैसे वेग में वृद्धि होती है वैसे-वैसे मन भावी घटना के तटस्थ निरीक्षण में सर्वथा असमर्थ हो जाएगा।
झूला जरा धीमा करो।
मन को समझाओ कि यह घटना अमु अंश में अनिश्चित जरूर है : परीक्षा की खासी अच्छी तरह तैयारी की है, परन्तु परिणाम क्या आएगा, यह कहा नहीं जा सकता, तो भी अभी से उसकी चिंता करने से नंबर कुछ अधिक आ जानेवाले नहीं। अभी से चिंता करने से कल्पित दु:ख से दुखी होने के सिवा कोई लाभ नहीं होगा।
अनुत्तीर्ण होंगे, तो उसका शोक तब करेंगे।
मनुष्य जीवित हो, तो उसकी चिता क्या कभी जलाई जाती है?
और फिर, वास्तविक दुख की अपेक्षा कल्पित दुख बड़ा होता है और देर तक चलता है। परीक्षा तो तीन घंटों में समाप्त हो जाएंगी, तो उसकी चिंता आठ महीने चलने देंगे?
जेल की दीवारें ऊंची हैं। एक दुखी लेखक लिखता है, परंतु उनकी ऊंचाई की अपेक्षा परछाई अधिक लंबी है।
भावनाओं का संचार हो, और मन के कोने-कोने में वह फैल जाए, शरीर की नस-नस में उसके अमृत या विष का प्रभाव पहुंच जाय, तब उसे मनोभाव करते हैं। वह अनुकूल हो, तो मानो पवन से हांकी जाती नाव! पाल फैलाओं, बस इतनी ही देर! परंतु अगर मनोभाव बिगड़े, तो वह मनुष्य को घोर निराशा में पटक देता है। ऐसा हो तब क्या करें? सारी दुनिया से रुष्ट होकर घर के एक कोने में बैठ जाएं?
नहीं, मनोभाव का व्याकरण भी होता है। अगर उसे सीख लोगे, तो सभी भावनाओं के बीच तुम्हारे जीवन की पंक्तियां सीधी लीखी जा सकेंगी।
प्रथम तो याद रखो कि अमावस के बाद पूर्णिमा आएगी ही। भाटे के बाद ज्वार जरूर चढ़ेगा। रात्रि के बाद प्रभात का फिर उदय होगा। यही प्रकृति का चक्र है, जीवन का यह अपरिहार्य नियम है।
निराशा का अंधकार हो, तब याद करो कि आशा का सूर्य उदित होगा ही और उत्साह खूब उमड़ता हो, तब याद रखो कि उदासीनता की छाया भी फिर छाएगी। तुम्हारे भावों का तांडव-नृत्य, इन विचारों से कुछ शांत हो सकेगा।
फिर, मन की स्थिति बिगड़ी तो भले ही बिगड़ी, परंतु बाहर इसकी खबर पड़ने न दो। दिल में चाहे जो भावनाएं हों, परंतु हाथ पैर निर्धारित नियमों के अनुसार चलाओ। युद्ध-क्षेत्र में, जवान के हृदय में चाहें अनेक भाव उठें, तो भी वह बंदूक चलाता ही जाता है। परीक्षा भवन में विद्यार्थी के मन में शंका-कुशंकाएं उठें, तो भी वह कलम चलाता ही जाता है। चलने लगी, तो चलने की उमंग स्फुरित होगी।
अंत में हिम्मत हो तो विकृत भावनाओं का हमला होने पर, आगे बढ़कर उनका मुकाबला करो। आज दो घंटे पढ़ना निश्चित किया था। फिर मनोभाव बिगड़ने पर आज का पढ़ने का कार्यक्रम, अनिवार्य परिस्थितियों के कारण स्थगित करने का मन हो गया।
ऐसी भावना होने पर यों सोचो : दो घंटे पढ़ना था, तो दो घंटे तो पढूंगा ही, क्योंकि जो अंधकार में रास्ता बदले और जो अशांति में निर्णय बदले वह मुसाफिर का धर्म भूलता है; परंतु पढ़ना स्थगित रखने की बात मन में आई, इसलिए अब दो घंटे से अधिक तीसरे घंटे भी न पढूं, तो मैं मर्द नहीं। और फिर भावनाएं ठीक-ठीकाने आने लग जाएंगी।
युद्ध का मंत्र है : बचाव की अपेक्षा आक्रमण अधिक अच्छा।
(लेखक स्पेन मूल के गुजराती साहित्यकार हैं। सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित उनकी पुस्तक सच्चे इंसान बनो से साभार)
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