जैहली घाटी ने देशी व विदेशी पर्यटकों के लिए एक अच्छा खासा प्लेटफार्म
तैयार कर लिया है। रोजाना सैकड़ों पर्यटक घाटी में विचरण करते देखे जा सकते
हैं। मण्डी से जंजैहली बस स्टैंड तक की दूरी लगभग 86 किमी है। किसी भी
वाहन अथवा बस द्वारा यहां पहुंचा जा सकता है। रास्ते में चैलचौक, काण्ढा,
बगस्याड तथा थुनाग आदि छोटे-छोटे कस्बे आते हैं जहां पर आप रुककर इस घाटी
के मनोरम दृश्यों से अपनी यात्रा में नया जोश भरते हैं। इन जगहों से आप
अपनी जरूरत का सामान भी खरीद सकते हैं। जंजहैली से दो किलोमीटर पीछे
पांडवशिला नामक स्थान आता है जहां आप उस भारी-भरकम चत्रन के दर्शन कर
पाएंगे जो मात्र आपकी हाथ की सबसे छोटी अंगुली से हिलकर आपको अचंभित कर
देगी। इस चत्रन को महाभारत के भीम का चुगल (हुक्के की कटोरी में डाला जाने
वाला छोटा-सा पत्थर) माना जाता है और इसकी पूजा की जाती है। ढलानदार खेतों
में चारों ओर फैली आलु और मटर के खेतों की हरियाली मन मोह लेती है। जब हम
जंजैहली पहुंचते हैं तो हम खुद को एक अलग ही दुनिया में पाते हैं। जंजैहली
सुंदर व शहर के शोर-शराबे से दूर एक शांत गांव है। यहां सेब, पलम, नाशपाती,
खुमानी आदि फलों की सीजन पर भरमार रहती है। जंजैहली बस स्टैंड के साथ ही
ढीमकटारु पंचायत की सीमा शुरू हो जाती है। यह पंचायत प्राकृतिक सौंदर्य का
एक अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करती है। यदि समय हो तो यहां के सांस्कृतिक
कार्यक्रमों में अवश्य शामिल होइए। घाटी में अन्य स्थल हैं जो खूबसूरती और
रोमांच से भरे पड़े हैं।
भुलाह
जंजैहली से 6 किमी की दूरी पर आता है रमणिक स्थल भुलाह जिसे एक बार देख लें
तो भुले से भी न भूले। भुलाह तक पक्की सड़क है। कोई भी बस यहां तक ही आती
है। भुलाह ट्रैकरों, पर्यटकों व श्रद्धालुओं का पहला पड़ाव स्थल भी माना जा
सकता है क्योंकि इसके बाद शिकारी पर्वत की चोटी तक चढ़ाई शुरू हो जाती है।
थोड़ा सा मैदानी होने और चारों ओर से देवदार, बान आदि के पेड़ों से घिरा
होने के कारण इस स्थान की सुंदरता देखते ही बनती है। भुलाह काफी-कुछ चंबा
जिले के खजियार जैसा है जिसे हिमाचल का मिनी स्विट्जरलैंड कहा जाता है।
बूढ़ा केदार
इस स्थल के लिए पैदल ही जाना पड़ता है। जंजैहली से ही आप इस रास्ते पर हो
लेते हैं। पूरा रास्ता चढ़ाई वाला है। यहां पर रहने वाले गुज्जरों के लिए
यह रोज का रास्ता है। ये जंजैहली तक दूध, घी व खोया आदि पहुंचाते हैं और
बदले में मिलने वाले धन से राशन व जरूरत का अन्य सामान ले जाते हैं। यह
गुज्जर समुदाय सर्दी में इन इलाकों को छोड़ कर मैदानी इलाकों में अपने
पशुओं के साथ चले जाते हैं और गर्मियों में ये फिर से वापिस अपने-अपने
दड़बों को आबाद करते हैं। किवदंती है कि बूढ़ा केदार में भीम से बचने के
लिए नंदी बैल एक बड़ी चत्रन में कूदे और सीधे पशुपतिनाथ मंदिर पहुंचे थे।
चत्रन में आज भी बड़ा सा सुराख है जिसके अंदर जाकर पूजा-अर्चना की जाती है।
यहां स्थित छोटे से झरने के नीचे स्नान करना भी पवित्र माना जाता है।
शिकारी देवी पर्वत
जंजैहली में इतनी संख्या में पर्यटकों के पहुंचने का प्रमुख कारण यदि माता
शिकारी देवी के प्रति अटूट आस्था व भक्ति भावना को माना जाए तो गलत न होगा।
इस भक्ति भावना को बल देती है प्राकृतिक सौंदर्य से लबालब यह घाटी। भुलाह
से आगे शिकारी देवी मंदिर लगभग 11 किमी की दूरी पर स्थित है। मंदिर तक सड़क
सुविधा है। किसी भी छोटी गाड़ी में आप इस दूरी को तय कर सकते हैं लेकिन
पैदल चला जाए तो आप रोमांच से भर उठेंगे। शिकारी देवी का मंदिर इस पर्वत पर
स्थित होने के कारण इसे शिकारी पर्वत के नाम से भी जाना जाता है। शिकारी
मंदिर तक पहुंचने के कई रास्ते हैं। लेकिन जंजैहली से मुख्यतया दो रास्ते
मंदिर तक जाते हैं। एक बूढ़ा केदार तीर्थ स्थल से तथा दूसरा भुलाह से होकर।
दोनों रास्तों से जाने का अपना ही मजा है। भुलाह से सड़क मार्ग उपलब्ध है
जबकि बूढ़ा केदार से आपको पैदल ही खड़ी चढ़ाई तय करनी पड़ती है। यह मार्ग
ट्रैकरों के लिए अति उत्तम है। जंजैहली में टै्रकिंग हॉस्टल भी है।
प्राकृतिक नजारों का आनंद लेना हो तो ऐसी जगहों पर पैदल चलना ही बेहतर होता
है। शिकारी देवी पर्वत के लिए आप सड़क के बजाए भुलाह नाले से होते हुए
जाएं तो एक अलग रोमांचकारी अनुभव से सराबोर होंगे। बड़ी-बड़ी चत्रनों से
प्रस्फुटित झरने, कल-कल बहते पानी का संगीत और लंबे-लंबे देवदार के वृक्षों
से घिरा यह नाला हर किसी को आकर्षित करने में पूर्णतया सक्षम है। नाले
वाला रास्ता शार्टकट है। इस नाले पर एक नई चीज जो पहली बार हमने देखी वह था
गहरे भूरे रंग का जंगली घोंघा (स्थानीय लोगों के अनुसार) जो बिलकुल ही
अलग-सा था। वह आम व्यक्ति के अंगूठे से भी मोटा और लगभग 6 इंच लंबा था।
इस नाले से आप लड़वहाच होते हुए सीधे सिंगरयाला पहुंचेंगे। बुजुगरें या
पैदल न चल सकने वालों के लिए सड़क मार्ग से जाने का भी अपना मजा है। कल्पना
लोक-सा शिकारी देवी मंदिर का यह स्थान अनोखे अहसास से सराबोर कर देता है।
आस-पास की चोटियों से सबसे ऊपर होने के कारण ऐसा लगता है जैसे हम आकाश में
उड़ रहे हों। समुद्रतल से इस स्थान की ऊंचाई 9000 फुट है।
शिकारी देवी मंदिर हिमाचल का एकमात्र ऐसा मंदिर है जिसकी छत नहीं है। कहा
जाता है कि देवी अपने ऊपर किसी भी तरह की छत स्वीकार नहीं करती। शिकारी
देवी का मंदिर पांडवों द्वारा निर्मित है। वनवास काल के दौरान पांडव यहां
रुके थे। कहा जाता है कि माता की मूर्तियों के ऊपर कभी भी बर्फ नहीं टिकती,
चाहे जितनी भी बर्फ क्यों न गिर जाए। पर्यटकों के पड़ाव का यह दूसरा स्थान
है। चाहें तो माता के दर्शन के उपरांत यहां से लौट भी सकते हैं लेकिन
शिकारी देवी मंदिर की दक्षिण-पश्चिम दिशा में जो सौंदर्य बिखरा पड़ा है उसे
करीब से देखे बगैर प्रकृति प्रेमियों का जाने का मन नहीं करेगा।
पृष्ठ 3 का शेष
यहां देवी के सिर छत नहीं
शिकारी देवी मंदिर की दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर जब हम उतरते जाते हैं तो हम
उस प्राकृतिक खूबसूरती के और करीब होते जाते हैं। कुछ ही समय में शिकारी
देवी मंदिर हमारी आंखों से ओझल हो जाता है। आगे का सफर हमें घने जंगल और
पथरीले रास्ते से ले जाता है। इस रास्ते पर चलते हुए पश्चिम में नीचे की ओर
हमें दीदार होता है एक छोटे से सुंदर इलाके देवीदहड़ का। इस क्षेत्र का
असीम सौंदर्य हमें अपने मोहपाश में बांध देता है। इस इलाके के लोगों की
कठिन लेकिन शांत जीवनशैली हमें हर मुश्किलों से लड़ने की प्रेरणा देती है।
यहां का पांच पेड़ों का एक पेड़ हमें हैरत में डाल देता है। यहां माता
मुंडासन का अति सुंदर मंदिर दर्शनीय है। यहां ठहरने के लिए आप वन विभाग का
विश्राम गृह बुक करवा कर इस वादी को तसल्ली से निहारने का आनंद ले सकते
हैं। देवीदहड़ के लिए दूसरा रास्ता वाया तुना, धंग्यारा होकर है जो चैलचौक
से एक किलोमीटर आगे जंजैहली रोड़ से इस दिशा की ओर मुड़ जाता है। इस रास्ते
से आप गाड़ी द्वारा यहां आराम से पहुंच सकते हैं। गर्मी के मौसम में यहां
की स्थानीय सब्जी लिंगड़ यहां बहुतायत में मिल जाती है। इसका अपना ही एक
खास स्वाद होता है।
कमरुनाग
जहां से हम देवीदहड़ के लिए नीचे उतरते हैं वहीं से ही एक रास्ता हमें सीधा
कमरुनाग (पांडवों के आराध्य देव) मंदिर तक ले जाता है। शिकारी मंदिर से
कमरुनाग मंदिर तक का रास्ता तय करने में 7 से 8 घंटे (यदि देवीदहड़ न जाएं)
का समय लग जाता है। इस रास्ते को पैदल ही तय करना पड़ता है। बेहद थका देने
वाले इस रोमांचक सफर में हवा के ठंडे झोंके और हर कदम पर दिखने वाले
खूबसूरत नजारे हमें ऊर्जायमान रखते हैं। कमरुनाग मंदिर के साथ एक झील भी है
जिसे कमरु झील कहा जाता है। किवदंती के अनुसार कमरुनाग पांडवों के आराध्य
देव हैं। आप यदि सरायों में रुकना चाहें तो यहां ठहर भी सकते हैं। आगे 7-8
घंटे का पैदल सफर तय करके सुंदरनगर की ओर सड़क मार्ग पर रोहांडा पहुंच सकते
हैं।
कब व कैसे
वैसे गर्मी का मौसम जंजैहली घाटी को निहारने के लिए अति उत्तम है। लेकिन आप
अप्रैल से अक्टूबर तक इस वादी में विचरण कर सकते हैं। चंडीगढ़-मनाली नेशनल
हाईवे या पठानकोट-जोगिंदरनगर मार्ग द्वारा सुंदरनगर या मंडी पहुंचकर यहां
से आगे जंजैहली के लिए (86 किमी) सफर बस या छोटी गाड़ी से किया जा सकता है।
एक अन्य रास्ता मंडी से ही वाया पण्डोह, बाड़ा, कांढा होकर (76 किमी) भी
है जो पहले रास्ते से छोटा तो है लेकिन उससे थोड़ा तंग है। इस मार्ग से आप
व्यास नदी पर बने पण्डोह बांध की खूबसूरती का मजा ले सकते हैं। हवाई मार्ग
से भी जंजैहली पहुंचा जा सकता है लेकिन इसके लिए पहले आपको भुंतर (कुल्लू)
एयरपोर्ट जाना पड़ेगा फिर पीछे मंडी की ओर आना पड़ेगा।
कहां ठहरें
जंजैहली में लोक निर्माण विभाग, वन विभाग का रेस्ट हाउस और अन्य निजी होटल व
सराय हैं जो आम तौर पर सस्ते हैं और बुनियादी सुविधाओं से संपन्न हैं। आप
इनमें सहज महसूस करेंगे। तो फिर देर किस बात की है। आइए चलें, दुनिया के
शोर-शराबे से दूर जंजैहली घाटी की वादियों में, दो पल आस्था व सुकून के
बिताने।
अब हम जंजैहली की पश्चिम दिशा की तरफ इसके दूसरे छोर अर्थात सुंदरनगर की
ओर होते हैं। यह 6 किमी का पूरा रास्ता ही उतराई वाला है। उतर कर हम
पहुंचते है रोहांडा। रोहांडा में एक छोटा-सा बस स्टेशन है जो
सुंदरनगर-करसोग मार्ग पर स्थित है। इस मार्ग द्वारा करसोग, शिमला, काजा,
किन्नौर भी जाया जा सकता है। यहां से चंडीगढ़-मनाली नेशनल हाईवे-21 मात्र
35 किमी दूर है। रोहांडा एक छोटा-सा कस्बा है। यहां से जरूरत की हर वस्तु
खरीदी जा सकती है। रोहांडा से बस, जीप व अन्य वाहन द्वारा नेशनल हाईवे तक
पहुंचा जा सकता है। यहां पर हमारी यह धार्मिक व रोमांचक यात्रा संपन्न हो
जाती है।
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