वृहद और अतुल्य बृहदीश्वर

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[एल. मोहन कोठियाल]। जावुर कई साम्राज्यों के शासन का साक्षी रहा है। इनमें चोल राजाओं ने अपनी सत्ता का विस्तार तो किया ही, साथ में वे धर्म के प्रति आस्थावान होने के चलते कला व शिल्प के पारखी व प्रोत्साहक भी रहे। प्रमाणस्वरूप उनके काल में बने दर्जनों भव्य मंदिर आज भी यहां हैं। इन मंदिरों में सबसे भव्य बृहदीश्वर मंदिर है जो भारत में बनी उन सीमित मानव निर्मित संरचनाओं में से एक है जिसकी अतुल्यता के कारण उसका स्थान यूनेस्को की विश्वविरासत सूची में दर्ज है। मंदिर की भव्यता, विशालता व स्थापत्य को देख चोलों की शक्ति, आराध्य शिव के प्रति अटूट आस्था व संकल्प का अनुमान भर लगाया जा सकता है। इस मंदिर का डिजाइन संरचनात्मक दृष्टि से मजबूत व टिकाऊ होना भी इस बात का परिचायक है कि प्राचीन समय में भी भारतीय वास्तुकार संरचनात्मक अभियांत्रिकी में दक्ष थे। यह काल भारतीय स्थापत्य कला का स्वर्ण काल था जब एक ओर पूरब में कलिंग की धरती पर वहां के राजा अपनी शैली में नायाब मंदिरों को बनवा रहे थे वहीं दक्षिण में चोल राजा द्रविड़ शैली में शानदार मंदिरों का निर्माण करवा रहे थे। ज्यादातर मंदिरों को उनके आराध्य के नाम से जाना जाता है लेकिन यह शिवमंदिर अपनी विशालता के कारण बड़ा मंदिर या बृहदीश्वर नाम से जाना जाता है। इसके दो दूसरे नाम पेरुवुडयार व राजराजेश्वर भी हैं। इसे वास्तुकार राजराजेश्वरन ने बनवाया था। माना जाता है कि इसका बृहदीश्वर नाम काफी बाद में प्रचलित हुआ। इसे बृहद की उपमा इसकी विशालता से ही मिली जो शिखर के दृष्टिकोण से दक्षिण भारत में सबसे ऊंचा प्राचीन मंदिर है जिसमें 14 मजिलें हैं। स्थापत्य के लिहाज से भी यह मंदिर द्रविड़ शैली के उन्नत अभियांत्रिकी विकास, मूर्तिकला व चित्रकला की विलक्षणता का उदाहरण है। बृहदीश्वर दक्षिण में बने दूसरे मंदिरों से कुछ भिन्न है। द्रविड़ शैली में बने मंदिरों में जहां गोपुरम मुख्य मंदिर की अपेक्षा काफी ऊंचे हैं वहीं बृहदीश्वर मंदिर में गोपुरम मुख्य मंदिर की अपेक्षाकृत छोटे हैं। मंदिर में प्रवेश मराठा द्वार से होता है। उसके बाद दो गोपुरम हैं। बाच् गोपुरम यानि केरलांतक तिरुवसल व अंतरंग गोपुरम यानि राजराजन तिरुवसल (प्रवेश द्वार) राजराजा चोल के काल में अलग-अलग समय पर बने। केरलांतक गोपुरम या बाच् गोपुरम राजराजा चोल ने चेरा राजाओं पर जीत के बाद बनवाया। 13वीं सदी के बाद आए नायक राजाओं ने मंदिर के बाहर किलेनुमा दीवार बनाकर उसे अभेद्य बनाया। वहीं 17वीं शती के बाद रहे मराठों ने मंदिर का बाच् द्वार बनाया और मेहराबों से सुसज्जित किया। ऊंचे शिखर के कारण बृहदीश्वर मंदिर नगर के कई भागों से दृष्टिगोचर होता है लेकिन इसकी विशालता का अहसास मंदिर में गोपुरम में प्रवेश करने पर हो जाता है। मंदिर की विशालता व संरचना देखने वाले को चमत्कृत कर देती है। मुख्य मंदिर के समक्ष चबूतरे पर बने एक मंडप में अधिकार नंदी की एकल प्रस्तर से बनी प्रतिमा सबका ध्यान खींचती है जो भारत में बनी दूसरी सबसे विशाल नंदी प्रतिमा है। यह 6 मीटर लंबी, 3.7 मीटर ऊंची व 2.6 मीटर चौड़ी है। मंदिर में आठों दिशाओं के स्वामी अष्ट दिग्पालकों इंद्र, वरुण, यम, कुबेर, वायु, निरुति, अग्नि और ईशान की 6 फुट ऊंची प्रतिमाएं दिखती हैं। मंदिर में प्रवेश के लिए सीढि़यां हैं जहां से मंदिर का मंडप है। मंदिर में पत्थरों से बने विशाल द्वारपालक दिखते है। मंडप के अंदर से ठीक सामने गर्भगृह है जहां विमान के ठीक नीचे वर्गाकार बने गर्भगृह में शिव विशाल शिवलिंग के रूप में स्थापित हैं। यह संपूर्ण मंदिर 120 मीटर चौड़ी व 240 मीटर लंबी आयताकार भूमि में निर्मित हुआ है जो दूसरे मंदिरों से थोड़ा अलग लगता है। इस मंदिर के विमान की ज्यामितीय संरचना गोलाकार न होकर पिरामिड का आकर लिए है जिसके शीर्ष पर 81 टन वजनी गुंबद है जो आठ पत्थरों से जोड़कर बनाया गया है। इसके बाद कलश आदि हैं। इसके शिखर की कुल ऊंचाई 60.96 मीटर है। यह मंदिर तो विशाल है ही, यहां स्थापित शिवलिंग भी 3.66 मीटर ऊंचा है। मंडप व मंदिर एक आयताकार चबूतरे पर बना है। मंदिर का गर्भगृह वर्गाकार है। मुख्य मंदिर संरचना अधिक भार को सह सके इसलिए मंदिर के गर्भगृह को दोहरी दीवारों से बनाया गया है। गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है। गर्भगृह के ऊपर मंदिर का विमान है जिसका अंतरंग भाग खोखला है। मंदिर में पत्थरों को जोड़ने के लिए पत्थरों में गेंद व खांचे बना कर उनको बैठाया गया। मंदिर की बाहरी दीवार पर अलंकरण शानदार है। मंदिर के दो ओर बने मंडपों में अनेकानेक शिवलिंग हैं। तमिलनाडु के दूसरे मंदिरों को जिन स्थानों पर बनाया गया उनका अपना महात्म्य भी है लेकिन तंजावुर के इस मंदिर के स्थल के साथ ऐसी बात नहीं रही। मंदिर का निर्माण राजराजा चोल ने अपने शासन की 25वीं जयंती के अवसर पर कराया था जो सन 1003 में आरंभ होकर 1010 में पूर्ण हुआ। राजराजा चोल के बाद उनके पुत्र राजेंद्र चोल प्रथम (सन 1014-1044) ने सत्ता का विस्तार जारी रखा व पिता के पदचिन्हों पर चलते हुए धर्म, कला व संस्कृति को प्रश्रय प्रदान किया। उन्होंने अपने काल में अलग से राजधानी का निर्माण किया जो गंगैकोंडचोलपुरम कहलाई। वहां पर उन्होंने तंजावुर की तरह ही बृहदीश्वर मंदिर का निर्माण करवाया जो तंजावुर के मंदिर से कुछ ही छोटा है। इससे तंजावुर का महत्व कम होने लगा। 13वीं सदी के मध्य तक चोलों की शक्ति क्षीण हो गई और वह बिखरने लगी। तंजावुर पर नायक राजाओं का आधिपत्य हो गया। लेकिन जो भी राजा यहां रहे उन्होंने इस मंदिर को महत्व दिया। नायकों के समय यहां पर विशाल नंदी को स्थापित किया गया व नंदी मंडप बनाया गया। वहीं पंड्यों ने सुब्रह्मण्यम मंदिर का निर्माण कराया। नायक शासकों में रघुनाथ नायक ने तंजावुर में महल का निर्माण किया। लेकिन 1675 तक आते-आते नायक रियासत पर अपनी पकड़ नहीं बरकरार रख सके और तंजावुर की रियासत मराठों के हाथ चली गई। मराठा शासक शाहजी ने यहां पर सिंहासन कक्ष बनाया और यहां पर सरायों व धर्मशालाओं का निर्माण करवाया। उन्होंने पुराने महल में कई बदलाव किए। वहां पर कई पांडुलिपियों का संग्रहण किया। सरफरोजी द्वितीय ने अपने पूर्वजों के अलावा यहां रहे पूर्व शासकों के दस्तावेजों से लेकर धातु की मूर्तियों व पत्थर प्रतिमाओं का संग्रहालय बनाया। 1855 में अंग्रेजों ने इस पर कब्जा कर लिया। बृहदीश्वर मंदिर में सदियों से चले आ रहे विधि-विधान के अनुसार पूजा अर्चना होती है। सुबह शिवलिंग के श्रृंगार के बाद ही दर्शन हो पाते हैं। शिवलिंग का इतना भव्य रूप अन्यत्र कम ही दिखता है। इस मंदिर की पहचान अपनी अद्भुत संरचना व स्थापत्य कला के कारण है। यह यूनेस्को के द्वारा विश्व विरासत में शामिल तीन चोल मंदिरों में से है। अन्य दर्शनीय स्थल तंजावुर में कई और चीजें देखने को हैं। इनमें तंजावुर पैलेस, कला दीर्घा, सरस्वती महल पुस्तकालय, दरबार हाल व संग्रहालय प्रमुख हैं। यहां के महल को नायक राजाओं ने बनाया और उसके बाद मराठा शासकों ने इसमें विस्तार किया। महल के बाहर एक मंदिरनुमा आकृति है जो कुछ इस तरह से लगती है कि आक्रमणकारी इसे देख भ्रमित होकर इसे मंदिर समझें। इसके अंदर प्रवेश करने पर ही पता चलता है कि इसे एक योजनाबद्ध ढंग से डिजाइन किया गया था। इसके ऊपर की सबसे ऊंची मंजिल से नगर का दूर-दूर का नजारा देखा जा सकता है। यहां पर मराठा सैनिकों का आयुध भंडार हुआ करता था। वहीं महल में कई सज्जित कमरे हैं जहां उस दौर के राजाओं के उपयोग की वस्तुओं को रखा गया है। यहां कला दीर्घा में कांसे, पत्थर की मूर्तियां व दूसरी कलाकृतियां रखी गई हैं। निकट ही निजी प्रयासों से चल रहा सरस्वती महल पुस्तकालय है जिसे मराठा राजा सरफरोजी प्रथम ने अपने निजी प्रयास से जोड़ा था। वहां पर कई मध्यकालीन व बहुमूल्य पांडुलिपियां व पुस्तकें प्रदर्शित हैं। शाही संग्रहालय व दरबार हाल में उनके अस्त्र शस्त्र, रथ, निजी सामान रखा गया है। यहां पर तमिल विश्वविद्यालय में संग्रहालय देखा जा सकता है। सरफरोजी द्वारा स्थापित एक चर्च भी यहां पर है। कब. कैसे. क्या. उत्तर व पूरब से तंजावुर आने के लिए चेन्नई आना होता है। वैसे तंजावुर के सबसे निकट हवाई अड्डा तिरुचिरापल्ली में है जो यहां से 60 किमी दूर है। यहां के लिए चेन्नई से विमान सेवाए हैं। चेन्नई से तंजावुर रेल मार्ग से 320 किमी दूर है। कुछ नगरों से रेल सेवाएं सीधे तिरुचिरापल्ली तक भी हैं। तिरुचिरापल्ली या त्रिची से यहां सड़क मार्ग से आना अधिक सुविधापूर्ण है। राज्य के दूसरे नगरों से भी तंजावुर बस सेवाओं से अच्छी तरह से जुड़ा है। विश्वविरासत स्थल होने के कारण नगर में अच्छे होटल भी हैं तो मध्यम प्रकार की सुविधाएं भी खूब हैं। नगर में आने-जाने के लिए सिटी बस सेवा से लेकर टैक्सी व थ्री-व्हीलर उपलब्ध है। पोम्पुहार व दूसरे शो रूम से तंजावुर में बनने वाला कांसे व चांदी का हस्तशिल्प व हैण्डलूम खरीदा जा सकता है। घूमने का सबसे बेहतर समय नवंबर से मार्च के मध्य होता है। आसपास तंजावूर से 35 किमी दूर कुंभकोणम से लगे धरासुरम में ऐरावतेश्वर मंदिर है। यह मंदिर राजेंद्र चोल द्वितीय द्वारा निर्मित किया गया। मूर्तिकला की दृष्टि से यह अद्भुत है। तंजावुर से लगभग 60 किमी दूर गंगैकोंडाचोलपुर का बृहदीश्वर मंदिर है। यहां बृहदीश्वर मंदिर छोटा व दूसरी शैली से बना है। यह दोनों मंदिर भी यूनेस्को की विश्वविरासत सूची में शामिल हैं। तंजावुर के निकट ही मंदिरों की नगरी कुंभकोणम है।
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